सहर को सहर नहीं कहता (कविता)

परहेज़ करता है वह खिलखिलाने से,
कि अपने मन की सरे-आम बताने से।

यूँ चुप रहता है
और आँखों से ख़ूब बोलता है,
जाने क्या आता है ज़ुबाँ पे पैमाने से।

तुझे मालूम नहीं आगे का
दोस्त मेरे,
छोड़ जूझने का मन बनाने से।

खाएगा फिर धोखा अपने मित्रों से,
बाज आ अपने मन की सुनाने से।

सहर को सहर नहीं कहता है वह,
रुकता नहीं शहर को जंगल बताने से।


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लेखन तिथि : 5 जून 2025
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