साहब हम मज़दूर हुए (कविता)

हम अँतड़ियों की सूखी हैं,
हम ही रोटी वो रूखी हैं।
हमको ईश्वर ने है ढाला,
शायद मेहनत ने है पाला।

जलती जेठ दुपहरी देखी,
साँसे लंबी गहरी देखी।
देखी बेबस और लाचारी,
देखी हमने ज़िम्मेदारी।

ज़िम्मेदारी बोझ तले हम,
झुकने को मजबूर हुए।
एक निवाले की ख़ातिर ही,
साहब हम मज़दूर हुए।

हमने ख़ून पसीना बोया,
कँधों पर है बोझा ढोया।
सूरज की वो तपिश है झेली,
बारिश भी अपने संग खेली।

हाथों से पत्थर हैं तोड़े,
कितने चुभे पैर में रोड़े।
भूल गए हम पेड़ और छाँव,
भूल गए हम अपना गाँव।

पेट पालने की ख़ातिर हम,
अपनों से ही दूर हुए।
एक निवाले की ख़ातिर ही,
साहब हम मज़दूर हुए।

ईटों के हैं महल बनाए,
फिर भी रात धरा पर आए।
फुटपाथों पर हम हैं सोए,
मेहनत के आँसू हैं रोए।

हमने मेहनत को है खींचा,
उम्मीदों का आँगन सींचा।
नहीं सुकून की नींद है सोया,
कभी तो अपना हक़ है खोया।

इन्हीं तरसती आँखों से ही,
हम ही जी हुज़ूर हुए।
एक निवाले की ख़ातिर ही,
साहब हम मज़दूर हुए।

रूठ गया वो हमसे बचपन,
रूठ गया हमसे अपनापन।
नहीं है लगता कुछ भी भारी,
हमने हिम्मत कभी न हारी।

नहीं बिछौना अपना आया,
अख़बारों पर बिस्तर पाया।
साहब हम ही बँजारे हैं,
हम ही मुसीबत के मारे हैं।

किसी के सपनों के ख़ातिर ही
अपने सपने चूर हुए।
एक निवाले की ख़ातिर ही,
साहब हम मज़दूर हुए।


लेखन तिथि : 1 मई, 2022
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