सदा फ़रियाद की आए कहीं से
वो ज़ालिम बद-गुमाँ होगा हमीं से
ख़ुदा समझे बुत-ए-सेहर-आफ़रीं से
गरेबाँ को लड़ाया आस्तीं से
चमन है शो'ला-ए-गुल से चराग़ाँ
बहार आई नवा-ए-आतिशीं से
ख़िरद है अब भी जिस के हल से आजिज़
वो नुक्ते हल किए हम ने यक़ीं से
सलामत वुसअ'त-आबाद-ए-मोहब्बत
बहुत आगे हैं हम दुनिया-ओ-दीं से
मआ'ज़-अल्लाह जलाल उस आस्ताँ का
टपक पड़ते हैं सज्दे ख़ुद जबीं से
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ज़िंदाँ-नसीब हूँ मिरे क़ाबू में सर नहींपिछली रचना
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