सब एक जैसी नहीं होती (कविता)

एक तरफ़
समर्पण था
निष्कलंक, निष्छल असीम प्रेम था
पर मेरे दिमाग़ में
एक वहम थी
एक बस छूटेगी तो दूसरी मिलेगी
फिर कली-कली मॅंडराता हुआ
बहुत दूर निकल आया
इतना दूर कि आज अकेला हूँ
उदास हूँ
अतृप्त हूँ
प्रेम शरीर का नहीं
बल्कि आत्मिक मिलन है
अब समझ में आया
सब एक जैसी नहीं होती।


लेखन तिथि : 18 फ़रवरी, 2024
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