रूपिन और सूपिन (कविता)

खिली हुई चाँदनी में बिखरा किसका बचपन
किसको याद चाँदनी पेड़ों से छनकर
आई या दीवार से मैं ही नहीं जानता
अपने बचपन के बारे में
ज़्यादा तो किसी से क्यों कहूँ
नहीं जानता मुझे कोई
जैसे नैटवाड़ की नदियों
रूपिन और सूपिन को
इनसे बनकर बनी है टौंस
और इनसे से बनी भागीरथी
जिनसे बनी आख़िर गंगा।

बहरहाल। बड़े होकर मैं
दोस्तों और रिश्तो में
घुल-मिल नहीं सका
मैंने कहा नदी भी जब मिलती है
नदी से तो काफ़ी आगे तक
वे अपने-अपने रंगों में चलती हैं
छोड़ती है अपना रंग टकराकर
चट्टानों और पहाड़ों के किनारों से
मैंने रिश्तों और दोस्तों में ठोकरें खाईं
और अपना रंग छोड़ दिया।

रूपिन से होकर एक पुल गुज़रता है
सूपिन में बहता है ठंडे बांज-बुराँस का पानी
दोनों कभी नहीं सूखी
और गर्मी में तो
उनमें बहा ज़्यादा पानी ज़्यादा ठंडा
वे जैसी-जैसी बड़ी होती गई
और टौंस बन गई
उनमें कई तरह से व्यापार बढ़ा।
जैसे पेड़ बहाने की वे राह बनी।
रेलवे लाइनें बिछीं इस तरह। आप ऐश करते होंगे कहीं।
गूजर का बेटा इसी
संगम पर बैठा है
बचपन के मेरे दिनों की तरह।


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