रुक कर जाती हुई रात (कविता)

रुक कर जाती हुई रात का
अंतिम छाँहों भरा प्रहर है
श्वेत धुएँ से पतले नभ में
दूर झाँवरे पड़े हुए सोने-से तारे
जगी हुई भारी पलकों से पहरा देते
नींद-भरी मंदी बयार चलती है
वर्षा-भीगा नगर
भोर के सपने देख रहा है अब भी
लंबे-लंबे धुँधले राजपथों में
निशि-भर जली रोशनी की
कुछ थकी उदासी मँडराती है।
पानी रँगे हुए बँगलों के वातायन से
थकी हुई रंगीनी में डूबा प्रकाश अब भी दिख जाता
रेशम-पर्दों, सेजों, निद्रा-भरे बंधनों की छाया-सा।

बुझी रात का अभी अख़ीरी पहर नहीं उतरा है,
दूरी के रेखा-छाँहों से पेड़ों ऊपर
ठंडा-ठंडा चाँद ठिठक कर मंदा होता
नभ की लंबी साया दूरी तक पड़ती है।


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