रंग-ए-दुनिया कितना गहरा हो गया,
आदमी का रंग फीका हो गया।
रात क्या होती है हम से पूछिए,
आप तो सोए सवेरा हो गया।
डूबने की ज़िद पे कश्ती आ गई,
बस यहीं मजबूर दरिया हो गया।
आज ख़ुद को बेचने निकले थे हम,
आज ही बाज़ार मंदा हो गया।
ग़म अँधेरे का नहीं 'दानिश' मगर,
वक़्त से पहले अंधेरा हो गया।
अगली रचना
नफ़रतों से लड़ो प्यार करते रहोपिछली रचना
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें