मैं प्रवासी मज़दूर (कविता)

भूख से लथपथ–
जीवन पथ पर,
मिटने को मजबूर,
मैं प्रवासी मज़दूर–
मेरी आत्मनिर्भरता ख़त्म हो गई!
मज़दूरी मौन हों गई!

महामारी की हवा विषैली–
बदल गई जीवन शैली।
पलायन पर “जनसैलाब”
बंद पड़ी बेज़ार “हवेली”...!
आपदा और बड़ी होती,
दिन से आगे–
रात निकल गईं,
मज़दूरी मौन हो गई!

मैं “मापता” ज़मीन
समेट कर सुनहरे दिन,
गली-गली, शहर-शहर,
चलता हूँ रात दिन,
कटता, मरता, गिरता हूँ–
फ़िर भी मैं ज़िन्दा हूँ!
ज़िंदगी जितकर “हार” गई,
मज़दूरी मौन हो गईं!

भयभीत क़दम रह थमते–
अब घरों पर ताले लगते,
अपनेपन की हवा निरंकुश–
“झंझावत” से कब तक लड़ते,
जलते-जलते आग
“चुल्हे” की बुझ गई,
मज़दूरी मौन हों गई!

मिटती अवसर की राहें–
अधिकारों के दीप जलाएँ,
उदासीनता-राजभवन की
दोहरे मापदंड अपनाए,
हमें रोकने की दीवारें–
बनी और कि ढह गई,
मज़दूरी मौन हो गईं!

टूटते मेरे साँसो के तार
शायद मुझ पर पड़ेगें हार,
जीविका-जलती
चौराहे पर–
बेबस, बेचैन, लाचार,
लहू धमनियों में सूखता–
घड़ी खड़ी-खड़ी थम गई,
मज़दूरी मौन हों गई!
मैं प्रवासी मज़दूर–
मेरी आत्मनिर्भरता ख़त्म हो गई।


रचनाकार : राजेश राजभर
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