प्रभाती (कविता)

रे प्रवासी, जाग, तेरे
देश का संवाद आया।

(1)
भेदमय संदेश सुन पुलकित
खगों ने चंचु खोली;
प्रेम से झुक-झुक प्रणति में
पादपों की पंक्ति डोली;
दूर प्राची की तटी से
विश्व के तृण-तृण जगाता;
फिर उदय की वायु का वन में
सुपरिचित नाद आया।

रे प्रवासी, जाग, तेरे
देश का संवाद आया।

(2)
व्योम-सर में हो उठा विकसित
अरुण आलोक-शतदल;
चिर-दुखी धरणी विभा में
हो रही आनंद-विह्वल।
चूमकर प्रति रोम से सिर
पर चढ़ा वरदान प्रभु का,
रश्मि-अंजलि में पिता का
स्नेह-आशीर्वाद आया।

रे प्रवासी, जाग, तेरे
देश का संवाद आया।

(3)
सिंधु-तट का आर्य भावुक
आज जग मेरे हृदय में,
खोजता, उद्गम विभा का
दीप्त-मुख विस्मित उदय में;
उग रहा जिस क्षितिज-रेखा
से अरुण, उसके परे क्या?
एक भूला देश धूमिल,
सा मुझे क्यों याद आया?

रे प्रवासी, जाग, तेरे
देश का संवाद आया।


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