फिर से हसीन वक़्त की बस्ती में आ गए (ग़ज़ल)

फिर से हसीन वक़्त की बस्ती में आ गए
मेरे तमाम शे'र जो सुर्ख़ी में आ गए

तक़दीर सूखे पत्तों की भी क्या है दोस्तो
थोड़े से चरमराए कि मुट्ठी में आ गए

ओझल हुए निगाह से दुनिया के रंज-ओ-ग़म
मिट्टी से हम बने थे तो मिट्टी में आ गए

गुच्छे तुम्हारी याद के पहलू से टूट कर
महके हुए गुलाब की टहनी में आ गए

काटे गए हैं पेड़ यूँ इतने कि आज-कल
जंगल के सारे जीव भी बस्ती में आ गए


रचनाकार : डॉ॰ भावना
  • विषय : -  
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