ग़म थे ज़माने भर के,
फिर भी मुस्कुरा दिया।
फूल होने का,
फ़र्ज़ अदा किया।
काग़ज़ और पैन का,
समझोता टूटा।
लिखता वो,
काग़ज़ की नापसन्दगी का।
चलती है लेखनी,
रक्त से अपने।
सब ओर टूटे सपने।
सपनों के मृत शरीर,
रातों का जागना,
दफ़न कितने क़िस्से,
जिन में चेतना आती है रात को।
और मन अकेला सहता,
उन सिसकती लाशों को,
सहला के देखता।
वह वाकई मृत थी,
बस श्वास शेष था।
आँखों में शून्यता का,
शून्य भर दिया।
ग़म थे ज़माने भर के,
फिर भी मुस्कुरा दिया।

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