दु:ख की प्रत्येक अनुभूति में,
बोध करता हूँ कहीं आत्मा है
मूल से सिहरती प्रगाढ़ अनुभूति में।
आत्मा की ज्योति में,
शून्य है न जाने कहाँ छिपा हुआ
गहन से गहनतर
दु:ख की सतत अनुभूति में
बोध करता हूँ एक महत्तर आत्मा है,
निविडता शून्य की विकास पाती उसी भाँति,—
सक्रिय अनंत जल-राशि से
कटते हों कूल ज्यों समुद्र के
एक दिन गहनतम इसी अनुभूति में
महत्तम आत्मा की ज्योति यह
विकसित हो पाएगी चिर परिणति महाशून्य में।

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएप्रबंधन 1I.T. एवं Ond TechSol द्वारा
रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें
