पराजित मन (कविता)

वसंत के बाद तो पेड़ हरे रहते हैं
उसकी छाया में मन
नए पत्तों से भर जाता है हर साल

यह कौन-सा वसंत है आया
जिसका कोई असर नहीं
देह एक ठूँठ है
साँस एक यातना
यह नए समय का दुःख है
जब खुले आकाश के नीचे
दम घुटता है

आवाज़ें बंद हो जाती हैं धीरे-धीरे
टूटी हुई टहनी की तरह
मैंने देह को गिरते देखा है

खिड़कियों को देखो तो हर लोहा
चुंबक की तरह आँखों को
अपने से चिपकाए है
दरवाज़े बंद हैं
पराजित मन जैसे
बिना पंख वाली चिड़ियाँ है
जिसकी आँखों में उड़ना अब भी बाक़ी है!


रचनाकार : शंकरानंद
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