यहाँ तो बारिश होती रही लगातार कई दिनों से
जैसे वह धो रही हो हमारे दाग़ों को जो छूटते ही नहीं
बस बदरंग होते जा रहे हैं क़मीज़ पर
जिसे पहनते हुए कई मौसम गुज़र चुके
जिनकी स्मृतियाँ भी मिट चुकी हैं दीवारों से
कि न यह गर्मी का मौसम
न पतझर का न ही यह सर्दियों का कोई दिन
कभी मैं अपने को ही पहचान कर भूल जाता हूँ
शायद कोई रंग ही न बचे किसी सर्दी में इतनी बारिश के बाद
यह क़मीज़ तब पानी के रंग की होगी!

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