पानी भरे हुए भारी बादल से डूबा आसमान है
ऊँचे गुंबद, मीनारों, शिखरों के ऊपर।
निर्जन धूल-भरी राहों में
विवश उदासी फैल रही है।
कुचले हुए मरे मन-सा है मौन नगर भी,
मज़दूरों का दूरी से रुकता स्वर आता
दोपहरी-सा सूनापन गहरा होता है
याद धरे बिछुड़न में खोए मेघ-मास में।
भीगे उत्तर से बादल हैं उठते आते
जिधर छोड़ आए हम अपने मन का मोती
कोसों की इस-मेघ-भरी-दूरी के आगे
एक बिदाई की सन्ध्या में
छोड़ चाँदनी-सी वे बाँहें
आँसू रुकी मचलती आँखें।
भारी-भारी बादल ऊपर नभ में छाए
निर्जन राहों पर जिनकी उदास छाया है
दोपहरी का सूनापन भी गहरा होता
याद भरे बिछुड़न में डूबे इन कमरों में
खोई-खोई आँखों-सी खिड़की के बाहर
रुँधी हवा के एक अचानक झोंके के संग
दूर देश को जाती रेल सुनाई पड़ती!

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