साहित्य रचना : साहित्य का समृद्ध कोष
संकलित रचनाएँ : 3561
राँची, झारखण्ड
1946 - 1994
चाँदनी के उजले फ़व्वारों-सी ख़ुशियाँ भर देती है मुझमें पालने की हँसी। यही हँसी एक दिन बन जाती है कला, और कल ढल जाएगी आस्थाओं में। इसी तरह कभी हँसती होऊँगी मैं, सुबह की ठंडी घास पर ओस की तरह मचलती हुई। आज व्यंग्य बन गई है ज़िंदगी की हँसी। तो फिर चाहती हूँ आज पालने की हँसी पाना, मगर कितना मुश्किल है वहाँ तक पहुँच पाना।
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