भूसामंडी, हाथीखाना,
लखनऊ
5-09-68
प्रिय जानकीवल्लभ जी,
अभी-अभी आपका पत्र मिला। हिंदी से आपको प्रेम होगा–कोई फ़र्ज़-अदाएगी समझेंगे तो अपने आप लिखेंगे। मैं एक पाठक की हैसियत से जितना आनंद प्राप्त कर सकूँगा, आपकी चीज़ें पढ़कर प्राप्त करना मरे लिए इतनी ही सुविधा है।
रही बात व्याकरण सीखने की, यह आपकी तबियत पर है। विषय कोई नीरस नहीं, इतना मैं कुछ-कुछ समझ सका हूँ।
मुझे अपनी चीज़ों की अनुकूलता-प्रतिकूलता बहुत कम अनुकूल-प्रतिकूल कर सकती है। यूँ दूसरों की तरह कमज़ोरियाँ मुझमें भी हैं क्योंकि दूसरों की तरह आदमी मैं भी हूँ।
मैं देखता हूँ, चीज़ ख़ुद अपने में कहाँ तक बन-सँवर कर खड़ी हो सकी है। जिन लोगों ने उत्तर लिखने के लिए कहा है, उन्होंने अपनी तरफ़ से कहा है। न तो मैंने अपने भाव दिए हैं, न उत्तर देखने के लिए मुझे कोई औत्सुक्य है।
मैं जानता हूँ, रवि बाबू के (आपके द्वारा) उद्धृत बंध—हेरि हासि तव–से मेरा ‘बजी बीन वाला–‘स्पष्ट ध्वनि आ धनि’’–बंध बहुत तगड़ा है, इसी तरह ‘जानि आमार कठिन हृदय’ से ‘जग के दूषित बीज नष्ट कर'।
जो लोग मुझसे लिखने के लिए कहते हैं। ये दूसरी जगह यह भी कहते हैं कि चूँकि निराला जी की इच्छा है, इसलिए लिखेंगे। उनमें कुछ लोग ऐसे भी हैं जो ऊँचे दर्जे के हैं। लिखने के लिए वे जो कुछ भी लिखें।
कुछ का कहना है, यह जो तुलसी-सूर आदि पर लिखा है, यह अच्छा नहीं किया निराला जी ने। पर वे भूल जाते हैं, निराला ने शेख़ी भी नहीं बघारी। उसी भूमिका में अपने सस्वार व ढलने की बात भी उसमें लिखी है और खुले तौर पर प्रभाव को स्वीकार किया है।
यह सब तो जो कुछ होगा, होता रहेगा। आपने और नहीं तो इधर के ‘विशाल भारत’ और ‘वीणा’ के अंक तो देखे होंगे। उनमें लिखा है, रवि बाबू प्रमुख बंगालियों ने हिंदी की मुख़ालफ़त करनी शुरू कर दी है–उनका कहना है, हिंदी में तुलसीदास के सिवा और क्या रक्खा है? सिर्फ़ बंगला राष्ट्रभाषा होने की योग्यता रखती है, कांग्रेस हिंदी का प्रचार बंद करे।
क्या आप बता सकते हैं रवि बाबू प्रमुख बंगालियों की ऐसी स्पर्द्धा का क्या कारण है? क्या इसीलिए नहीं कि रवि बाबू के डंके की चोट ने हिंदी की मूर्खमंडली को विवश कर दिया है कि वह रवि बाबू के गू को भी सार देखे और खड़ी बोली के सार-पदार्थ को भी गू?
मेरी किताबें कब निकलेंगी मैं नहीं जानता। मुमकिन दो महीने में 'तुलसीदास' और 'अनामिका’ निकल जाए।
आपके प्रश्नों के उत्तर मैं अभी नहीं लिख सकूँगा। क्योंकि बहुत काम पड़ा हुआ है पूरा करने में लगा हूँ। एक नया उपन्यास भी लिख रहा हूँ। इसलिए अभी यहाँ न आइए।
‘साहित्य’ सभी का है। इसलिए अलग रहने की बात किसी ‘साहित्याचार्य’ की नहीं हो सकती। आपकी तरह मैं भी साधारण व्यक्ति हूँ। फ़र्क़ इतना ही है कि आपकी तरह असाधारण व्यक्तियों की ओर स्नेह मेरा कम बहता है। न असाधारण कोई कुछ मुझे नज़र आता है, जब उत्कृष्ट और अपकृष्ट के दर्शन पर विचार करता हूँ।
कुछ काल बाद निश्चित होकर मैं आपको अच्छी तरह लिखूँगा। आपके प्रश्नों के उत्तर दूँगा।
मैंने चाहा था, आपको नई हवा खिलाऊँ। कोशिश की थी। पर आपने एक स्थिति से दूसरी स्थिति को समझना चाहा। मेरी आदत किसी का बिगाड़ना नहीं। जब दर्द पैदा होता है, तब हर आदमी दवा के लिए दौड़ता है। सोचकर मैं चुप हो गया।
लिखना पढ़ना आपका धर्म है, और कोई धर्म मनुष्य के स्वभाव में घर कर लेता है, तब छूटता नहीं। लिहाज़ा, क्या कहूँ।
आपका
निराला
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