वसुधा के अंकपाश में खेले नीर,
सृजित जल तत्व से मानव शरीर।
धरा गगन पर अठखेलियाँ करता,
निराकार बहता फिरता पय अधीर।
दिवाकर के ताप से उष्मित होकर,
पयोधि वारि उड़ा वाष्पित होकर।
तृष्णा मेघों की अभिसिंचित की,
बरसे मेघ परितृप्त हर्षित होकर।
खेत खलिहान सब लगे लहलहाने,
पशु विहग तृणमूल प्यास बुझाने।
तपती धरती हो गई जलमग्न,
चँहु ओर जन जीवन लगा हरषाने।
तृषित विह्वल सलिला जलमय,
इठलाती चली मनमुदित प्रेममय।
गाँव, शहर, पहाड़ पार कर,
समर्पित कर हो गई वारिधिमय।।

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