क्षण भर के आनंद के लिए
अपना ही नहीं अपने परिवार का भी
जीवन तो मत बिगाड़िए,
तन का नाश, मन का विनाश
चेतना को शून्य की ओर
तो मत ढकेलिए।
सबको पता है
आप उन्हें क्या क्या बताएँगे?
मगर शून्य की ओर बढ़ती
अपनी ही चेतना में चैतन्यता
वापस भला कैसे लाएँगे?
ईश्वर का वास भी है
इस तन के मंदिर में,
अपवित्र रहकर भला
कैसे ईश्वर को रिझाएँगे
कैसे रामधुन और आरती गाएँगे,
नशे की लत में पड़कर
जब तन ही खोखला हो जाएगा
फिर भला अपनी चेतना को
कैसे सँभाल पाएँगे?
नशा करे चेतना शून्य
तब समझकर भी
क्या क्या बचा पाएँगे?
जब मंदिर ही खंडहर हो जाए
तब ईश्वर भला कैसे वहाँ
विराजमान रह पाएँगे?
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