नकारने की भाषा (कविता)

उसने धीरे से मेरे कान में कहा
चलो मेरे संग
तुम्हें चाँद की सैर करवाता हूँ
मैं बिना कुछ सोचे उछल कर उसकी
साइकिल के डंडे पर चढ़ बैठी

उसने कहा मुझसे मुझे दर्द है
तुम इसे महसूस करो और
मैंने दर्द की पराकाष्ठा में आँखें मूँद लीं
उसने कहा यह भी कि मैं प्यार करता हूँ तुमसे
मेरे प्यार की गहराई को समझो और
मेरे होंठों पर रख दिए अपने गर्म दहकते होंठ
मैं शिद्दत से उसके प्यार को महसूसने लगी

कहा उसने हम दो नहीं एक जान हैं
सब कुछ भुला कर मुझमें समा जाओ और
मेरी पहचान के सारे निशान धुँधले पड़ने लगे

वह कहता रहा और मैं सुनती रही
वह कहता रहा और मैं करती रही
इस तरह एक दिन मैं बेगानी हो गई अपनी ज़बान से
मैं नकारने की भाषा भूल गई।


रचनाकार : ज्योति चावला
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