नाज़-ए-हुस्न से जो पहल हो गई (ग़ज़ल)

नाज़-ए-हुस्न से जो पहल हो गई,
मौत भी आज से तो सरल हो गई।

मोहिनी कमल नयनी बँधी डोर सी,
सर्पिणी सी लिपट मय गरल हो गई।

इश्क़ थी दूर की बात मेरे सनम,
ज़िंदगी बे-शऊर अब हल हो गई।

भर गई थी लबालब तलहटी अना,
आज निश्छल दिलों सी सजल हो गई।

गुनगुनाता रहा बहुत देर तक जब,
भाव ओठ पर आके ग़ज़ल हो गई।

बंजर विरान थी 'समित' की ज़िंदगी,
प्रेम प्याला पिला वो फ़ज़ल हो गई।


लेखन तिथि : 24 अगस्त, 2019
यह पृष्ठ 308 बार देखा गया है
अरकान: फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
तक़ती: 212 212 212 212
×
आगे रचना नहीं है


पिछली रचना

बढ़े जा रहे हैं
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें