नारी (गीत)

संचरण हित पुरुष की इच्छा
प्रबल होने लगी!
देख अतिविस्तार, इच्छा—
शक्ति-बल खोने लगी!

प्रकृति अति-गतिप्रिय पुरुष के
मनोरथ-रथ के लिए
चक्रयुगयुत अंगना के
बीज तब बोने लगी!

केंद्रप्रिय है दृष्टि, अतिशय संकुचित
गति की परिधि;
किंतु नारी काटती विस्तार
द्रुत रथचक्र-विधि!

पुरुष के समतल-सरण की
कामना की पूर्ति वह—
विघ्नहारिणि, बीजधारिणि,
सृष्टि की अनमोल निधि!

जन्म लेती कोख से
गतिप्रिय पुरुष की पीढ़ियाँ!
ऊर्ध्वगित में वह पुरुष के हित
बनाती सीढ़ियाँ!

मुक्ति दी उसने पुरुष को
एक दिन यम-पाश से
जब लकड़हारे पुरुष की
चेतना सोने लगी!
संचरणहित पुरुष की इच्छा
प्रबल होने लगी—


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