न जाने क्यूँ मुझे उस से ही ख़ौफ़ लगता है
मिरे लिए जो ज़माने को छोड़ आया है
अँधेरी शब के हवालों में उस को रक्खा है
जो सारे शहर की नींदें उड़ा के सोया है
रफ़ाक़तों के सफ़र में तो बे-यक़ीनी थी
ये फ़ासला है जो रिश्ता बनाए रखता है
वो ख़्वाब थे जिन्हें हम मिल के देख सकते थे
ये बार-ए-ज़ीस्त है तन्हा उठाना पड़ता है
हमें किताबों में क्या ढूँडने चले हो 'वसीम'
जो हम को पढ़ नहीं पाए उन्हीं ने लिक्खा है

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तमाम उम्र बड़े सख़्त इम्तिहान में थापिछली रचना
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