मुक़ाबला हो तो सीने पे वार करता है (ग़ज़ल)

मुक़ाबला हो तो सीने पे वार करता है
वो दुश्मनी भी बड़ी पुर-वक़ार करता है

जो हो सके तो उसे मुझ से दूर ही रखिए
वो शख़्स मुझ पे बड़ा ए'तिबार करता है

नगर में उस की बहुत दुश्मनी के चर्चे हैं
मगर वो प्यार भी दीवाना-वार करता है

मैं जिस ख़याल से दामन-कशीदा रहता हूँ
वही ख़याल मिरा इंतिज़ार करता है

शिकायतें उसे जब दोस्तों से होती है
तो दोस्तों में हमें भी शुमार करता है


रचनाकार : ख़ालिद महमूद
  • विषय : -  
यह पृष्ठ 465 बार देखा गया है
×

अगली रचना

शायद कि मर गया मिरे अंदर का आदमी


पिछली रचना

हर कमंद-ए-हवस से बाहर है
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें