मुझे सिरे से पकड़ कर उधेड़ देती है
मैं एक झूट वो सच्चे सुबूत जैसी है
मैं रोज़ रोज़ तबस्सुम में छुपता फिरता हूँ
उदासी है कि मुझे रोज़ ढूँढ लेती है
ज़रूर कुछ तो बनाएगी ज़िंदगी मुझ को
क़दम क़दम पे मिरा इम्तिहान लेती है
जो एक फूल खिला है सहर की पलकों पर
तुम्हारे जिस्म की ख़ुशबू उसी के जैसी है
वो रौशनी जो सितारों का ख़ास ज़ेवर है
अमीक़ आँखों में अक्सर दिखाई देती है
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वही आँगन वही खिड़की वही दर याद आता हैपिछली रचना
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