मिलने तुम आ जाना (कविता)

नित्य नए षड्यंत्र देख,
कब तक ख़ामोश रहूँ मैं?
देख ज़ुल्म अन्याय को,
कब तक इन्हें सहूँ मैं?

अपने अनकहे दर्द को मैंने,
बयाँ किया ना लफ़्ज़ों से।
सुन लो, मैं भी इक मानव हूँ,
विचलित होता जज़्बों से।।

कभी चुप रहता संबंधों से,
कभी डरूँ जग लज्जों से।।
समझों मेरे कलम भाव को,
जो कहा न कभी लफ़्ज़ों से।।

तोड़े सब वादे, सपने तुमने,
ख़ामोश रहा, हो मेरे अपने।
नित्य षड्यंत्र तुम हो रचते,
बंद रख होठ सहा हमने।।

सुनो, दिल पर जो मेरे गुज़री,
कहाँ कभी किसी ने जाना।
धैर्य टूटा, बोले जब लफ़्ज़ मेरे,
पलभर में हुआ तुमसे बेगाना।।

सुनो अभी कुछ नहीं है बिगड़ा,
ज़िद्द में कही दुर्योधन न बन जाना।
लगे अगर कहीं भूल हुई है तुमसे,
स्वीकार कर मिलने तुम आ जाना।।


रचनाकार : अंकुर सिंह
लेखन तिथि : 27 सितम्बर, 2021
यह पृष्ठ 279 बार देखा गया है
×

अगली रचना

धन के सँग सम्मान बँटेगा


पिछली रचना

मुझको हक़ दें दो
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें