मेरे नाज़ुक सवाल में उतरो (ग़ज़ल)

मेरे नाज़ुक सवाल में उतरो
एक हर्फ़-ए-जमाल में उतरो

नक़्श-बंदी मुझे भी आती है
कोई सूरत ख़याल में उतरो

फेंक दो दूर आज सूरज को
ख़ुद ही अब माह-ओ-साल में उतरो

ख़ूब चमकोगी आओ शमशीरो
मेरे ज़ख़्मों के जाल में उतरो

कुछ तो लुत्फ़-ए-तज़ाद आएगा
मेरे ग़ार-ए-ज़वाल में उतरो

ख़्वाह पतझड़ की ही हवा बन कर
पेड़ की डाल डाल में उतरो

मुज़्महिल रात और तन्हाई
काश ख़्वाब-ए-विसाल में उतरो

ऐ 'ज़फ़र' पेश है महा-भारत
आदमियत की ढाल में उतरो


रचनाकार : ज़फ़र हमीदी
यह पृष्ठ 336 बार देखा गया है
×
आगे रचना नहीं है


पिछली रचना

जब भी वो मुझ से मिला रोने लगा
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें