मर्मरित हरित अगणित तरुओं के वन-सा मेरा मन है,
जड़ जमी हुई है मिट्टी में, शिखरों पर मरकत-घन है!
धरती करती रहती पोषण, सूना नभ करता सिंचन;
आते जाते पतझर वसंत, करते संपन्न अकिंचन!
प्रतिपल पुष्पित पल्लवित पाश ऋतुओं का भुज-बंधन है!
मर्मरित हरित अगणित तरुओं के वन-सा मेरा मन है!
कोमल कोंपल के पंख लगा कल्पना डाल कर आती,
दिक्काल बाँधने के प्रयत्न में इच्छा बन उड़ जाती;
जो उड़ता है वह तो मन है, इच्छा केवल वाहन है!
मर्मरित हरित अगणित तरुओं के वन-सा मेरा मन है!
इच्छा के टूटे हुए पंख पतझर के पत्र कहाते;
जो पत्र पवन में उड़ जाते वह लिखित गीत बन जाते!
मन में अगणित अलिखित गीतों के मर्मर का क्रंदन है!
मर्मरित हरित अगणित तरुओं के वन-सा मेरा मन है!
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