मरहम (कविता)

ज़ख़्म बहुत गहरे हैं उनके,
हर आँख यहाँ भीगी है।
किस किसके आँसू पोछेंगे,
मानवता ही ज़ख़्मी है।।

मरहम ही कम पड़ जाएगा,
तन-मन सारा छलनी है।
अपने अपनों से बिछड़ गए,
बचपन डूबी कश्ती है।।

पाई-पाई घर बनवाया,
ख़ुशियाँ कोण-कोण बिखरी।
डूब रही हैं पितृ की साँसे,
जो बेच घर ख़रीदी है।।

किस ज़ख़्म पर मरहम रखेंगे,
मन ही पूरा घायल हैं।
मानव संवेदन शून्य हुआ,
शब ले जाए अकेली है।।

‌भाव शून्य हुए पत्थर दिल हैं,
रीति प्रीत को भूल गए।
दाह संस्कार तो किया नहीं,
शब जल धार बहाई है।।

तहस-नहस हो जाए दुनिया,
अपना कोई छिन जाए।
चार कँधे नसीब ना होते,
कैसी ये मज़बूरी है।।

धधक रहा है दहक रहा है,
सब्र रख बिगड़ा है,
फ़ज़ाएँ बदल ही जाएँगी,
कब तक रात अँधेरी है।।

मरहम भी काम करेगा "श्री",
घाव अभी ये ताज़े हैं,
वक़्त से बढ़कर कोई नहीं,
वक़्त का मरहम ज़रूरी है।।


लेखन तिथि : 2021
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