मकीनों को तरसता हर मकाँ है (ग़ज़ल)

मकीनों को तरसता हर मकाँ है
मगर अब शहर में अम्न-ओ-अमाँ है

लुटी क्यों दिन-दहाड़े घर की पूँजी
जो इस घर का मुहाफ़िज़ था कहाँ है

फ़साने गढ़ रहा है झूट उन का
मगर मेरी सदाक़त बे-ज़बाँ है

सुने भी वो तो कब बावर करेगा
मैं जो कुछ कह रहा हूँ राएगाँ है

मिरे पैरों तले जलती ज़मीनें
मिरे सर पर धुएँ का साएबाँ है

मैं तीर-अंदाज़ समझा जा रहा हूँ
मिरे हाथों में इक टूटी कमाँ है

मिरी आँखों में इक मिस्मार मस्जिद
मिरे कानों में इक ज़ख़्मी अज़ाँ है

मिरी नींदों पे साए क़ातिलों के
मिरे ख़्वाबों में मक़्तल का समाँ है

हवाओं पर जो लिक्खी जा रही है
मिरी बर्बादियों की दास्ताँ है

करे पुर्सिश मरीज़-ए-जाँ-ब-लब की
मसीहा को मगर फ़ुर्सत कहाँ है

सुना है मैं ने ख़ुद को दूसरों से
मिरा क़िस्सा हदीस-ए-दीगराँ है

अभी हम सुर्ख़-रू हैं ख़ुद से 'मख़मूर'
कि आईनों में सैल-ए-ख़ूँ रवाँ है


रचनाकार : मख़मूर सईदी
  • विषय : -  
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