मझधार (कविता)

मैं प्रेम की कश्ती हूँ,
मेरा जीवन मझधार में है!
हे प्रिय! तुम माँझी बनो,
हमें चलना उस पार है!
प्रेम न ठहरे सागर जैसा,
कलकल-छलछल बहता रहता!
एक तट से होकर दुजे तट तक जाता,
कितनो के यह हृदय हिलाता,
प्रेम नदी की धार है!
बीच भँवर में जब मैं रूठूँ,
लहर थपेड़ों से जब मैं टूटूँ,
तुम कहना मुझसे हे प्रिय!
तुम अभी न हारों,
मेरे हाथों में प्रेम की पतवार है,
हमें चलना उस पार है!
हो लाख कश्तियाँ साहिल पर,
तुम चुनना मुझे,
चलना मेरे संग आख़िर तक!
मैं श्वास-श्वास में तुम्हें बाँधुगी,
तुम्हारे प्रेम को कभी न साधुँगी!
मुझे नहीं मझधार में रहना,
चाहे नदी हो,
या हो प्रेम का झरना!
हमें चलना उस पार है,
प्रिय! मुझे साहिल की दरकार है!


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