या छंद हैं?
या द्वन्द्व हैं?
या भीतर का दावानल?
या मिटाने तीव्र तपन को
शब्द बने हैं गंगाजल?
या साकार हूँ?
या निर्विकार हूँ?
या लीक से हटकर लीक बना हूँ?
या भेंट चढ़ावा पाने को
पत्थर का प्रतीक बना हूँ?
या विस्तार हूँ सकल जगत का?
या ब्रह्माण्ड में लीन हुआ हूँ?
या शून्य व्योम की चाहत में
मैं लक्ष्य विहीन हुआ हूँ?
या घटते जीवन मूल्यों को
मैं लिखते-लिखते ऊँघ रहा हूँ?
या जग रटता आँखें मूँदे
मैं शब्दों को सूँघ रहा हूँ?
समझाना जटिल
क्या मैं वैसा हूँ जैसा दिखता हूँ?
मेरे लिए यह यक्ष प्रश्न
मैं क्यों लिखता हूँ?

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