मैं जहाँ खड़ा था (कविता)

मैं जहाँ खड़ा था
वहाँ दरवाज़ा ही नहीं था
जो खुल जाता सिम-सिम कहने से
मैं जहाँ जाना चाहता था
वहाँ कोई रास्ता ही नहीं था
जो किसी के चलने से
कट जाता
मुझे जिस दीवार को
फाँदना था
वह दीवार थी ही नहीं वहाँ
मैं जिस घर में रहता था
उसकी खिड़कियाँ खुली हैं
जैसी लगती थीं
उनमें उस पार देखो
कुछ भी नहीं दिखता था
अब मैं जिस जगह खड़ा हूँ
याचना की मुद्रा में
वहाँ प्रेम खड़ा है
और बिल्कुल उसके पीछे
छिपा है मेरा दु:ख
अपने हाथों में
दुधारी तलवार लिए
और कोई आता नहीं है कहीं से
मुझे बचाने के लिए


रचनाकार : आग्नेय
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