एक अश्व है
जो द्यौ और पृथिवी के बीच
सिंह बना क्षितिज पर खड़ा
कैसे पुरुष-भाव से ब्रह्मांड का अवलोकन करता
हिनहिना रहा है।
प्रातःकाल की हवा में उड़ती।
उसकी लाल-वासंती अयाल से
पूर्व दिशा रक्ताभ हो उठी है।
उसके पैरों से बँधी गतियाँ।
हवा में उड़ती हुई दिखती हैं
और आकाश में टकराती शब्द करती सुनाई भी देती हैं।
उसकी तैलाक्त स्वर्णिम देह पर
न पानी
न दिन
और न दृष्टि कुछ भी तो नहीं ठहरता।
यह आत्मजन्मा प्रजापति अश्व
अपनी इस देवता-देह से
इंद्र के हरित, नील, लोहित और ताम्रवर्ण के
कोटि-कोटि घृत्स्नु-अश्वों को जन्म दे रहा है।
यह कैसा मातृमनस वाला पिता है
जो अपनी प्रजा की देहों को चाट-चाट कर
उन्हें उनके वर्णों में चमका रहा है,
और ये नवजात घृत्स्नु-अश्व
चारों दिशाओं में
मरुतगाति से हिनहिनाते भागने लगे हैं।
ये घृत्स्नु-अश्व
कामोद्दीप्त साँड़ों की भाँति
दिशाओं की देहों को, योनियों को सूँघ रहे हैं
और उन्हें गर्भवती बनाने के लिए कैसे आकुल हैं।
विद्युत-खुरों के इन अश्वों से
आकाश थरथरा रहा है
नहीं, खुँदा पड़ रहा है
और मंडलाकार लाल धूल ही धूल भर उठी है।
आओ—
ओ प्रकाश के घृत्स्नु-अश्वो! आओ,
अपने आदि पिता—अश्व के साथ आओ
जिसने पुरुष-भाव से
आकाश को पितृत्व प्रदान किया
और तुम
इस भाषा जैसी पृथिवी को गर्भवती बनाओ
प्रकाश के घृत्स्नु-अश्वों के पुरुषत्व के लिए
यह पृथिवी ही महायोनि है।
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