इतवार कब फिसल गया पता ही नहीं चला
थक कर लौटती हो तुम
टूट कर गिरा रहता हूँ मैं
कभी प्याली तुम पकड़ाती हो
कभी चाय मैं बनाता हूँ
हम दोनों मिलकर भी कई बार नहीं बना पाते रात का खाना
जाले कौन हटाए यह एक और उलझा हुआ सवाल है
गमले का पौधा पहले मुरझाया फिर रविवार आने से पहले ही
गिर कर सूख गया
उसका शव मिट्टी बना
इस मिट्टी में रोपना है फूल
करता हूँ इंतज़ार फिर किसी छुट्टी का
सूरज को देखे बरसों बीत गए
चाँद दिखता है धुँधला
किसी दिन जब हम ऑफ़िस जाने की जल्दी में थे
खिड़की से गौरैया ने खटखटा कर दी थी आवाज़
हड़बड़ी में हम छोड़ आए चलता पंखा
शाम उसके पंख बिखरे मिले घर में ख़ून से लथपथ
अब हमारी खिड़की बंद रहती है
वसंत
पहियों से घिसटता हुआ आता है हमारे शहर में
तुम्हारी ख़ुशबू में लिपटा चला आता है धुआँ
मेरे कपड़ों से रेत की तरह गिरते हैं
मेरे छोटे-बड़े समझौते
तुम्हारी लिपस्टिक से उतरती हैं दिन भर की फीकी मुस्कुराहटें
तुम्हारा मोबाइल तुम्हारी हँसी को बदल देता है
यस सर में
मेरा लैपटॉप खींच ले जाता है मुझे तुमसे दूर
अपनी ऑफ़िस टेबल पर
अगले दिन शाम ढले फिर तुम झुकी हुई आती हो
रात गए मैं बुझा-सा तुमसे मिलता हूँ
हमारे बीच
न स्नेहिल स्पर्श है, न कातर चुंबन, न आतुर रातें
शायद वीर्य और रज भी हमारी क़िस्तों के भेंट चढ़ गए
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