मछली बोली जल ही जीवन
समझें औ समझाएँ।
हो रहा जल का दुरुपयोग
था अकूत भंडार।
सपने सेना उज्जवल
भविष्य के है बेकार।।
भरे तरावट तन-मन में जो
ऐसा कुछ हम खाएँ।
लटक रहे हैं आम्रकुंज में
आम के टिकोरे।
प्यास के लिए पंछी की
छत पर रखे सकोरे।।
बाग-बगीचे, पर्वत-पर्वत
टेसू ठाठ जमाएँ।
तपने लगी धूप वह जैसे
जाड़ा भूल गई।
फुनगी ज्यों कि हरियाली का
पहाड़ा भूल गई।।
एसी, कूलर, पंखे- गर्मी
देख-देख इतराएँ।

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