आनत शिर नहीं रेंगते हम
पृथ्वी तल पर!
क्या नहीं प्राप्त है हमें
युगल युगवाही कर?
उपजा नवान्न, निर्मित कर घर,
अर्जित कर यश,
हम रहे नहीं पशु-पक्षी-से
विधि पर निर्भर!
ध्वनि और अर्थ को गूँथ
चित्र लिख कर अक्षर,
करते संचित संकलित ज्ञान
जीवन-पथ पर!
ईश्वर कह सुलभ किए हमने
शतश: रहस्य;
हम प्रकृति नियति के
सार्थवाह हैं, नारी-नर!
चेतनाकेंद्र में क्रियाशील
जो महाशक्ति
बाहर विराट भव में
अबाध जो महाशक्ति
कर त्रिपुरसुंदरी में चित्रित,
दे अतुल भक्ति,
हम मूर्तिमती कर देते
संज्ञा लोकोत्तर!
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