माना तिरी नज़र में तिरा प्यार हम नहीं
कैसे कहें कि तेरे तलबगार हम नहीं
सींचा था जिस को ख़ून-ए-तमन्ना से रात-दिन
गुलशन में उस बहार के हक़दार हम नहीं
हम ने तो अपने नक़्श-ए-क़दम भी मिटा दिए
लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं
ये भी नहीं के उठती नहीं हम पे उँगलियाँ
ये भी नहीं के साहब-ए-किरदार हम नहीं
कहते हैं राह-ए-इश्क़ में बढ़ते हुए क़दम
अब तुझ से दूर मंज़िल-ए-दुश्वार हम नहीं
जानें मुसाफ़िरान-ए-रह-ए-आरज़ू हमें
हैं संग-ए-मील राह की दीवार हम नहीं
पेश-ए-जबीन-ए-इश्क़ उसी का है नक़्श-ए-पा
उस के सिवा किसी के परस्तार हम नहीं
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