माँ (कविता)

माँ
पालती है
पेड़ एक
लाड़ से
प्यार से
दुलार से।
माँ सुलाती है
लोरी गा
पिलाती है दूध
लुटाती है
तन मन प्राण
पेड़
होता बड़ा ज्यों-ज्यों
जड़ें
उसकी मज़बूत
घुस जाती हैं
माँ में
हाथ पैर में
दिमाग़ में
और दिल में
चूसता है
ख़ून-पानी-माँस
महँगे आँसू
पेड़ पाता
विस्तार अद्भुत
देखता संसार
रूककर राह में
कितना बड़ा है पेड़
कितना लम्बा है पेड़
पेड़ बढ़ता
निस दिन
माँ से धँसी
जड़ों से
दूर होता
निस दिन!


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