लुक्का (कविता)

शाम की धुँधलकी के बाद
गहराता अंधकार
आम के घने बगीचे मे
पसर कर ऊँघती रात
वनबिलाड़ और लोमड़ी के
हू हू... हू ऊ... हू हू... में
कि जैसे स्वरों में धुन मिलाता संगतकार
एक तरफ़ भकभकाकर जलता लुक्का—
कि अँधेरे को चुनौती देकर आता हो अंजोर
किरणों के साथ रात की गेसूओं से बाहर आता सूर्य
पानी की छती पर चकचक
चिड़ियों की चहकन
द्रुतविलंबित में माल-मवेशी की बाऊँ... बा... उ... ऊँ...
राग भैरवी
अहिल्या बिलावल
टटकी ओस-बूँद का टपकना, गिरना, सूखना, बिखरना,
बिखरकर खो जाना
इसी तरह लुक्का
गहनतम अंधकार फाड़ने को व्याकुल
वह लुक्का
कच्चे बाँस की मोटी लाठी में
कपड़े लपेटकर
आग जलाने के बाद
भकभकाकर जला है
मेरा बदन दिन भर की रखबारी से
गत्तर-गत्तर टूट रहा है
घुटने पैर को फाड़कर निकलना चाहता है
दर्द बढ़ता जाता है
ये वो दर्द है जो मुझे
सीधे खड़े होने की ताक़त देता है
अलस्सुबह रोज़ाना
तब तलक जब सूर्य को
माया लपेटने का समय मिले
मैं लुक्के में कपड़े लपेटूँ
करियायी रात मे लुक्का की रोशनी में
बग़ीचे की रखबारी के बहाने
दीना-भद्री की लोकगाथा सुनाऊँ
राजा सलहेस की कथा
कि रुका हुआ समय,
मछलियों के साथ
दो-दो फ़ीट ऊपर
पानी की छाती पर
उछल जाए...
मूर्तन
पत्तों पर बरखा बूँदन की
टपटप टघार
कारी बदरिया के सपने हज़ार
कमरतोड़ आई महँगाई की मार
हिंदी पट्टी का सूखा संसार
प्यार मोहब्बत न दिल का बुख़ार
कल्पना-लोक में क्या करते हो यार...?
यूटोपियन सुपरस्टार...


रचनाकार : अरुणाभ सौरभ
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