लेकर सीधा नारा (कविता)

लेकर सीधा नारा
कौन पुकारा
अंतिम आशाओं की संध्याओं से?

पलकें डूबी ही-सी थीं—
पर अभी नहीं;
कोई सुनता-सा था मुझे
कहीं;
फिर किसने यह, सातों सागर के पार
एकाकीपन से ही, मानो—हार,
एकाकी उठ मुझे पुकारा
कई बार?

मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल
जीवन;
कण-समूह में हूँ मैं केवल
एक कण।
—कौन सहारा!
मेरा कौन सहारा!


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