ले चल वहाँ भुलावा देकर, मेरे नाविक! धीरे-धीरे।
जिस निर्जन में सागर लहरी, अंबर के कानों में गहरी—
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो, तज कोलाहल की अवनी रे!
जहाँ साँझ-सी जीवन-छाया ढीले अपनी कोमल काया,
नील नयन से ढुलकाती हो, ताराओं की पाँति घनी रे!
जिस गंभीर मधुर छाया में—विश्व चित्र-पट चल माया में—
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई दुख-सुख वाली, सत्य बनी रे!
श्रम-विश्राम क्षितिज बेला से—जहाँ सृजन करते मेला से,
अमर जागरण उषा नयन से—बिखराती हो ज्योति घनी रे!

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