क्यों हो गए हक़ीर ख़ुद अपनी निगाह में (ग़ज़ल)

क्यों हो गए हक़ीर ख़ुद अपनी निगाह में
क्या देख आए हम ये तिरी जल्वा-गाह में

क्या क्या गुमाँ हैं हम पे हमारी निगाह को
हम जब से आ बसे हैं तुम्हारी निगाह में

ख़ुद हुस्न से भी बच के गुज़रना पड़ा जहाँ
आए वो मरहले भी मोहब्बत की राह में

ये किन बुलंदियों का तजस्सुस नज़र को है
लगता नहीं दिल अंजुमन-ए-मेहर-ओ-माह में

मिट ही चुके थे रज़्म-गह-ए-ज़िंदगी में हम
क़िस्मत से आ गए तिरे ग़म की पनाह में

तुम ने मुझे बना के गुनाहगार-ए-आरज़ू
भर दी हैं जन्नतें मिरे ज़ौक़-ए-गुनाह में

तम्हीद-ए-शौक़ की भी शिकायत लबों पे है
तकमील-ए-शौक़ के भी तक़ाज़े निगाह में

करते शिकायत-ए-सितम-ए-बे-हिसाब क्या
हम खो के रह गए करम-ए-गाह-गाह में

ये क्या ख़याल है तुझे ऐ क़ल्ब-ए-ना-मुराद
कोई शरीक हो तिरे हाल-ए-तबाह में

'मख़मूर' शाम-ए-ग़म की फ़ज़ाएँ सुलग उठीं
किस आतिश-ए-निहाँ के शरारे थे आह में


रचनाकार : मख़मूर सईदी
  • विषय : -  
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