विष्णु के दशावतार कृष्ण हैं,
भाद्रपद अष्टमी जन्म लिया।
निशा स्याह रात बारह बजे,
कारागार में अवतरण लिया।
प्रहरी सोए नींद गहरी,
बेड़ियाँ कच्चा सूत हो गईं।
गोपाल की जीवन रक्षा ही,
पिता के लिए परम हो गई।
नवजात को वस्त्र लपेटा,
रख टोकरी शिरोधार्य किया।
धीरे-धीरे क़दम बढ़ाया,
नद्य कालिंदी प्रवेश किया।
सूर्यजा ने वेग बढ़ाया,
मेघ पुष्प कंठ तक आ पहुँचा।
चरण पखारे रवितनया ने,
जल वसुंधरा पर आ पहुँचा।
यसुदा घर आ पहुँचे कान्हा,
मैया बगल कृष्ण शयन किया।
बेटी पैदा की यसुदा ने,
उसे बसुदेव ने उठा लिया।
लौट गए वापस पहरे में,
बेड़ी फिर से धारण कर ली।
रुदन सुन बेटी का कंस ने,
कुछ शंका अंतर में भर ली।
बेटी कैसे हो सकती है,
मुझको कैसे मार सकेगी।
फिर भी उसको तरस न आया,
बलशाली होकर पटकेगी।
पैरों से पकड़ा कन्या को,
सख़्ती से सिल पर दे मारा।
हाथों से फिसल गई कन्या,
आकाश में गुँजा टँकारा।
गोकुल में फैल गईं ख़ुशियाँ,
नन्द के अँगना बजे बधाई।
कान्हा "श्री" मनमोहक सूरत,
देख-देख गोपी हर्षाई।
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