कहाँ खो गई हमारी संस्कृति,
जिसमें भरी हुई थी सभ्य-सभ्यता।
जहाँ न थी पैसों की भुख,
न होती थी अकेले की सुख।
जहाँ कद्र होती थी सर्वोपरि,
अनुशासन परिवार की थी मुख्य कड़ी।
माता-पिता की सेवा ही,
संतानों की थी सबसे बड़ी सम्पत्ति।
भगवान जहाँ घर-घर पूजे जाते थे,
अतिथि को देवता तुल्य समझे जाते थे।
हर अच्छे-अच्छे कामों के पहले,
आशीर्वाद बड़ों का दृढ़ विश्वास दिलाते थे।
अपनी मेहनत और सामर्थ्य का बढ़ावा,
अनुभवियों के मार्गदर्शन से कराते थे।
परिवार जहाँ पत्नी-बच्चे तक की नहीं,
माँ-बाप से चाचा-चाची तक के होते थे।
सारा समाज जहाँ एक घर बनकर,
सभी रिश्तों के नाम से जाने जाते थे।
पैसों का अर्जन भौतिक-सुख से पहले,
परिवारिक सुख के लिए किए जाते थे।
परिवारों में होती किसी की उपलब्धि,
वह श्रेय मेरा नहीं हमारा हो जाता था।
भगवान के चरणों के साथ हमेशा,
बड़ो के चरण स्पर्श किए जाते थे।
दूर का ढोल सुहावने लगने की बात,
हम भारतीयों के मन को ख़ूब भाई है।
इसलिए हमने अपनी संस्कृति छोड़,
पश्चिमी संस्कृति को अपनाने में जोर लगाई है।

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