मैं कोई फ़नकार नहीं हूँ,
औरों की सरकार नहीं हूँ।
लिख देता हूँ मन की पीड़ा,
बेदर्द कलमकार नहीं हूँ।
पन्ने और सजाते होंगे,
कलमी हार बनाते होंगे।
मैं मन की वेदन लिखता हूँ,
वे धन मान बढ़ाते होंगे।
जो तोड़ मरोड़ बनाते हैं,
वे शान-ओ-शौकत पाते हैं।
मैं झुग्गी-झोंपड़ रहता हूँ,
वे पल में महल बनाते हैं।
औरों के भाव चुराते हैं,
काव्यसर्जक बन जाते हैं।
मैं धूल सना ही रहता हूँ,
वे नील गगन चढ़ जाते हैं।
धूल सना खोटा कवि हूँ मेैं,
पर जनमानस की छवि हूँ मैं।
वे सब होंगे चाँद जगत के,
पर अपने मन का रवि हूँ मैं।
मेरी उनसे होड़ नहीं है,
अंधी मेरी दौड़ नहीं है।
वे मालिक हैं उन सपनों के,
जिनसे मेरा जोड़ नहीं है।
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें