कवि 'मन' को है संवेदनाएँ बेधती
शर, शूल घाव बन कर है चुभती।
रो पड़ी है कलम उनकी धार में
कवि मन बोझिल हुई
भावनाओं के भार में।
रख दिया है 'शब्द' हृदय की थाल में
बन गए है छंद इनके व्यग्र में।
करुण रस, कभी ओज रस
शृंगार है इनकी भाव में
चल रहे रसधार बन जन के प्राण में।
हो चुकी मन प्रस्फुटित विचार में
अब नहीं नर रुके संग्राम में।
धवल धार बन कर है मेघ बरसने लगी
सिक्त-सिक्त धरा है फिर जीने लगी।
सिक्त-सिक्त है धरा फिर जीने लगी।
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें