मैं जगाऊँ उसे केवल
जागरण मानूँ नहीं।
सहज मति से थाम कर यह अर्द्धनग्न प्रकाश—
गति में बँधा मेधावी भविष्य अकाश
समझ लूँ वह अमोघ सपन-भरा इतिहास;
और उसको बाँध दूँ मैं काल-खंडों
प्रात-संध्याओं, अथाहे अंधकारों
के कहीं उस ओर... दृष्टि अछोर।
मेरी कथ्य-अपराजित मुखर-अभिव्यक्ति
अक्षर मौन पीती रहे, लेकिन
शब्द-गति जाने नहीं।
धुंध में मैं जन्म दूँ कुछ अमर पाशों को
शीतमय वातास में कुछ ऊष्ण साँसों को
दूरवर्ती आयु-सदियों में जगाऊँ गति
असहमति-अकरुण-पुतलियों में अयाचित रति
फैल जाऊँ, फैल जाऊँ, फैल जाऊँ—आह
कालातीत यक्षी-सिसकियों में, अनवरत संघर्ष को लिख मरूँ
पर निर्माण पहिचानूँ नहीं।
आह मेरे चाँद! आह मेरे सूर्य!
आह मेरे नयन! आह मेरे
क्रूरतम संतोष!!
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