जहाँ
इस वक़्त
कवि है
कविता है
वहाँ
जंगल है और अँधेरा है और हैं
धोखेबाज़ दिशाएँ।
दुश्मन सेनाओं से बचने की कोशिश में
भटकते-भटकते
वे यहाँ आ फँसे हैं।
जहाँ से
इस वक़्त
न आगे बढ़ा जा सकता है और
न पीछे ही लौटा जा सकता है।
और
इस वक़्त
इस जंगल में
कवि की भूख की निगाह कविता पर है
और कविता की भूख की
कवि पर।
कई-कई दिन हुए
एक दाना तक नहीं गया है उनके मुँह में
—और अब यह तय है
कि जंगल से वही
निकल पाएगा—जो
दूसरे को काटकर
अपनी ख़ुराक हासिल करे
और ताक़त पाए
और
भविष्य ही बताएगा
कि जंगल से निकलने
और दुश्मन से लड़ने के लिए
कौन बचता है
—कवि या कविता?
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