कहीं पे चंदर उदास बैठा (ग़ज़ल)

कहीं पे चंदर उदास बैठा, कहीं सुधा भी बुझी पड़ी है
मगर ये क़िस्मत का खेल देखो, न बात कोई सुनी पड़ी है

वो एक लम्हा था सिर्फ़ अपना, जो तेरा दामन थाम लेता
मगर ये दुनिया के बंधनों में, वही मोहब्बत दबी पड़ी है

न हम गुनहगार थे किसी के, न तुम ही जानिब ख़ता थी कोई
मगर ये मजबूरियाँ हमारी, सज़ा बनीं तो कड़ी पड़ी है

उसी किताबों के दरमियाँ अब, उदास ख़्वाबों की राख बाक़ी
जहाँ मोहब्बत के फूल महके, वहीं उदासी जमी पड़ी है

वो घर जो अपना था, रोशनी थी, वहीं अंधेरों का राज अब है
तेरी जुदाई में 'जानिब' देखो, ये रूह तक भी जली पड़ी है


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यह गजल गुनाहों के देवता उपन्यास पर आधारित है

अरकान: मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
तक़ती: 1222 1222 1222 1222
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